अमरीका में मध्यावधि चुनाव आगामी मंगलवार, यानी 6 नवंबर 2018 को हैं। यह चुनाव देश के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। इस ब्लॉग के पाठकों में से कई को यह उत्सुकता हो सकती है कि यह भला कौन से चुनाव हैं। किसे चुना जा रहा है? डॉनल्ड ट्रंप की सरकार पर इसका क्या असर होगा? अभी दो साल पहले ही तो चुनाव हुए थे, फिर मध्यावधि क्यों? यदि आपके मन में यह सब सवाल उबल रहे हैं तो आप सही जगह आए हैं। आइए इन सब प्रश्नों पर नज़र डालें, विशेषकर भारतीय चुनावों की तुलना में।
Author: रमण कौल
सवाल बहुवचन संबोधन में अनुस्वार का
मित्रो, मैं आज बहुत समय बाद लिख रहा हूँ और आशा है कि आगे से नियमित लिखूँगा।
ऊपर लिखे इस वाक्य में आप को कुछ अटपटा लगा? मुझे यकीन है कि कुछ लोगों को “मित्रो” शब्द आम भाषा से विपरीत लगा होगा, क्योंकि उन्हें संबोधन में भी “मित्रों” लिखने कहने की आदत है। दरअसल यह लेख इसी प्रश्न का उत्तर देने की एक कोशिश है कि संबोधन बहुवचन में “मित्रो” कहा जाना चाहिए या “मित्रों”, “भाइयो-बहनो” कहा जाना चाहिए या “भाइयों-बहनों”। हाल में इस विषय पर बर्ग वार्ता के अनुराग जी से फ़ेसबुक पर लंबा संवाद हुआ, और अपने इस लेख में उन्होंने अपनी बात को विस्तार पूर्वक भी रखा। फ़ेसबुक के मुकाबले ब्लॉग पर लेख रखना अच्छा है, और इसके लिए मैं उनको धन्यवाद देना चाहता हूँ। फ़ेसबुक पर लिखा हुआ आम तौर पर कुछ दिनों में खो जाता है, और हमारी पहुँच से तो क्या, गूगल की पहुँच से भी बाहर हो जाता है। इसके अतिरिक्त ब्लॉग पर links और images देने में भी अधिक स्वतंत्रता रहती है।
मूल अंग्रेज़ी लेख – 7 Things to Consider Before Choosing Sides in the Middle East Conflict
लेखक – अली अमजद रिज़वी, अनुवादक – रमण कौल
[इसराइल-फ़लस्तीन मुद्दे पर हम सभी अपना अपना पाला चुनते हैं। इस मुद्दे पर संतुलित विचार बहुत कम मिलते हैं। अली रिज़वी, जो एक पाकिस्तानी मूल के कनैडियन लेखक-डॉक्टर-संगीतज्ञ हैं, का यह लेख इस कमी को बहुत हद तक पूरा करता है। लेखक की अनुमति से मैंने मूल लेख को यहाँ अनूदित किया है।]
आप “इसराइल समर्थक” हैं या “फ़लस्तीन समर्थक”? आज अभी दोपहर भी नहीं हुई है और मुझ पर दोनों होने के आरोप लग चुके हैं।
इस तरह के लेबल मुझे बहुत परेशान करते हैं क्योंकि वे सीधे इसराइल फ़लस्तीनी संघर्ष की हठधर्मी कबीलावादी प्रकृति की ओर इशारा करते हैं। अन्य देशों के बारे में तो इस तरह से बात नहीं की जाती। फिर इन्हीं देशों के बारे में क्यों? इसराइल और फ़लस्तीन दोनों के मुद्दे जटिल हैं, दोनों के इतिहास और संस्कृतियाँ विविधता से भरी हैं, और दोनों के मज़हबों में बहुत सी समानताएँ हैं, भले ही ग़ज़ब के विभाजन हों। इस मुद्दे पर दोनों में से एक पक्ष का समर्थन करना मुझे तर्कसंगत नहीं लगता।
बस यही अपराध मैं हर बार करता हूँ
आदमी हूँ आदमी से प्यार करता हूँ।
1861 में अंग्रेज़ों की बनाई IPC धारा 377 के अनुसार आदमी-आदमी के प्यार को अपराध करार दिया गया था। आज डेढ़ सौ साल बाद हम इस धारा को हटाने के प्रयासों में असफल हो गए हैं। मेरे हर दोस्त का इस बारे में कुछ कहना है, और बहुत कम लोगों को सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला ग़लत लगा है। मुझसे पहले की पीढ़ी के लोगों के ऐसे विचार हों, ऐसा स्वाभाविक है, पर मेरी पीढ़ी और कुछ मुझ से अगली पीढ़ी के कुछ लोगों के भी इस मामले पर विचार कुछ पुराने हैं। स्वयं को इस शोर में अकेला तो पा रहा हूँ, पर एक खुशी है कि यह चर्चा अब बंद नहीं होने जा रही, और जितनी चर्चा होगी, उतनी लोगों को सूचना मिलेगी और उतनी लोगों की आँखें खुलेंगी। ऐसी मेरी उम्मीद है। मैं स्वयं भी पहले समलैंगिकता के विषय पर पूरी तरह निष्पक्ष नहीं था, इस कारण मैं किसी को पूरी तरह दोषी भी नहीं ठहराता। पर जैसे जैसे और जानकारी हासिल की, मेरे विचार बदले। आशा करता हूँ कि और लोग भी आँखें खुली रखेंगे, जानकारी हासिल करेंगे, और फिर निर्णय लेंगे।
सफर पराई रेल का
वाशिंगटन-बॉस्टन असेला एक्सप्रेस पर मेरे सामने की सीट पर जो खिड़की के साथ महिला बैठी हैं, वह पिछले पौने घंटे से फोन पर बात करने में लगी हुई हैं। उनकी सीट की पीठ मेरी ओर है, इस कारण मुझे दिख नहीं रहीं, पर ऐसा लगता है कि अपने दफ्तर का कोई मसला हल कर रही हैं। उन्हें अपने बॉस से शिकायत है, और इस बारे में या तो अपने सहकर्मी से या अपने बॉस के सहकर्मी से बात कर रही हैं। लगातार बोले जा रही हैं। कुछ महिलाएँ कितना बोल सकती हैं। आधा घंटा पहले उनके साथ जो दूसरी महिला बैठी हुई थीं, वह अपना लैपटॉप, कोट और बैग लेकर झुंझलाती हुई उठीं और आगे की किसी सीट पर चली गईं। एक मिनट बाद पी.ए. सिस्टम पर ऍनाउन्समेंट हुई – “यात्रीगण कृपया ध्यान दें, जो यात्री फोन पर बात कर रहे हैं वे अपने सहयात्रियों का ध्यान रखते हुए कृपया अपनी आवाज़ धीमी रखें, या फिर कैफे-यान में चले जाएँ।” लगता है महिला नंबर दो सीधा कंडक्टर से शिकायत करने गई थीं। मुझे नहीं लगता कि फोन पर बात कर रही महिला ने यह उद्घोषणा सुनी भी,
कुछ दिन पहले अपने अंग्रेज़ी ब्लॉग पर मैं ने कश्मीर पर एक लेख लिखा जो कई दिनों से मन में उबल रहा था, पर कश्मीर में हो रही हाल की घटनाओं के कारण उफन पड़ा। इस लेख को काफी अच्छी प्रतिक्रिया मिली — कुछ टिप्पणियाँ अच्छी, कुछ बुरी। फेसबुक और ट्विटर पर सैंकड़ों लोगों ने इसे शेयर किया। लेख का सार यह था कि कश्मीर जितना बड़ा दिखता है, उतना है नहीं। कश्मीरी मुसलमान आज़ादी ले भी लेंगे तो उनका यह “देश” नहाएगा क्या और निचोड़ेगा क्या। कुछ पाठकों ने सुझाव दिया कि इसे हिन्दी में छापूँ। इसलिए अनुवाद कर सामयिकी में भेज दिया। नीचे मूल अंग्रेज़ी लेख और सामयिकी में छपे हिन्दी अनुवाद की कड़ियाँ हैं। कृपया पढ़ें और अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें। अंग्रेज़ी लेख पर एक लंबे चौड़े वार्तालाप के ज़रिए कुछ और बिन्दु सामने आए हैं।
गूगल ने उर्दू के शौकीनों के लिए बहुत ही नायाब टूल उपलब्ध करा दिया है। पिछली 13 मई से गूगल अनुवादक में उर्दू जोड़ दी गई है, यानी आप अब उर्दू से, या उर्दू में, दर्जनों भाषाओं का अनुवाद कर सकते हैं। गूगल ट्रान्सलेट पर जाइए, “Translate from” में “Urdu ALPHA” चुनिए, “Translate to” में हिन्दी, अंग्रेज़ी या दर्जनों अन्य भाषाओं में से कोई भी चुन लीजिए और ट्रान्सलेट का बटन दबाइए। अनुवादक अभी एल्फा, या यूँ कहें अलिफ़ अवस्था में है, इस कारण कुछ बचपना, कुछ शरारतें तो करेगा ही, पर कुल मिला कर काम की चीज़ है।
बढ़िया बात यह है कि इस टूल का प्रयोग न केवल अनुवाद करने में किया जा सकता है, बल्कि उर्दू लिखनें में भी किया जा सकता है, और कुछ शब्दों का हिन्दी से लिप्यन्तरण करने में भी प्रयोग किया जा सकता है। यानी यदि आप को उर्दू लिखनी पढ़नी नहीं आती, तो भी आप रोमन अक्षरों का प्रयोग कर उर्दू टाइप कर सकते हैं। ध्यान रखें कि Type Phonetically वाला चैकबॉक्स सक्रिय हो, अब उर्दू वाले बक्से में bhaarat लिखें और आप को بھارت लिखा मिल जाएगा।
कुछ वर्ष पहले मैं ने एक पोस्ट लिखी थी जिस में मैं ने बताया था कि जैसे अन्य भारतीय भाषाओं में एक लिपि से दूसरी में लिप्यन्तरण संभव है, वह उर्दू के साथ क्यों संभव नहीं है। लिपि की भिन्नता की यह समस्या किसी हद तक गूगल ने इस टूल के द्वारा हल कर दी है, हालाँकि कमियाँ अभी मौजूद हैं।
अनुवाद की कुछ कमियाँ तो बड़ी रोचक हैं, और इनकी ओर ध्यान दिलाने के लिए शुएब और अरविन्द का धन्यवाद — उन से बज़ पर कुछ बातचीत हुई थी इस बारे में। मुलाहिज़ा फरमाइए गूगल-उर्दू-अनुवादक के कुछ नमूने
उर्दू में लिखिए | हिन्दी अनुवाद |
کراچی (कराची) | भारत |
افغانستان (अफ़ग़ानिस्तान) | भारत |
انڈیا (इंडिया) | भारत और पड़ौस |
پاکستان (पाकिस्तान) | भारत |
यानी गूगल वालों को इस क्षेत्र में भारत के सिवाय कुछ नहीं दिखता। यह विशेष अनुवाद उर्दू से हिन्दी में ही उपलब्ध है, उर्दू से अंग्रेज़ी में अनुवाद ठीक हो रहा है। यह आश्चर्च की बात है कि जब कि उर्दू से हिन्दी में अनुवाद सब से आसान होना चाहिए था, इसी में दिक्कतें आ रही हैं। अरे गूगल भाई, कुछ नहीं आता तो शब्द को जस का तस लिख दो। हिन्दी से उर्दू के अनुवाद में भारत का अनुवाद भारत ही है, पर भारत और पड़ौस लिखेंगे तो उसका अनुवाद है انڈیا (इंडिया)।
ऊपर दिए शब्दों के इस स्क्रीनशॉट में देखिए
वैसे कुछ उर्दू पृष्ठ जो आप अभी तक नहीं समझ पाते थे, अब समझ पाएँगे। पृष्ठ का यूआरएल, या मसौदा, गूगल के अनुवादक में डालिए और अनुवाद पाइए। समझ पाने लायक तो अनुवाद हो ही जाएगा। उदाहरण के लिए शुएब के इस ब्लॉग-पोस्ट का अनुवाद
कुछ प्रश्न हों, कुछ संशय हों, कृपया टिप्पणी खाने में पूछें। यदि आपको भी कुछ अजीबोग़रीब तरजमे मिले हों तो अवश्य बताएँ।
पाकिस्तान से जुड़ी एक और कड़ी आतंक की
विश्व भर में आजकल आतंकवाद की जितनी घटनाओं का पर्दाफाश होता है, वह चाहे भारत में हो, योरप या अमरीका में — उन में से अधिकांश की जड़ें किसी न किसी रूप में पाकिस्तान से जा मिलती हैं। न्यूयॉर्क में कल पाकिस्तानी मूल के अमरीकी नागरिक फैसल शाहज़ाद का पकड़ा जाना इसी सिलसिले की नवीनतम कड़ी है।
मीडिया में जो रिपोर्टें आईं हैं, उन के हिसाब से फैसल शाहज़ाद के पकड़े जाने का घटनाक्रम किसी जासूसी उपन्यास से कम नहीं लगता। तीन दिन पहले, यानी 1 मई को न्यू यॉर्क के टाइम्स स्क्वायर में एक निसान पाथफाइंडर कार खड़ी पाई गई, जिस का इंजन चालू था और गाड़ी में से धुँवा निकल रहा था। आसपास के लोगों की सतर्कता और पुलिस-एफ.बी.आइ. आदि की मेहनत से दो दिन बाद इस गाड़ी के मालिक फैसल शहज़ाद को तब पकड़ा गया जब वह पाकिस्तान की ओर अपनी यात्रा आरंभ कर चुका था। आज़ादी की ओर अपने सफर के पहले हिस्से में वह न्यू यॉर्क के जे.एफ.के. हवाई अड्डे पर दुबई के जहाज़ में बैठा था। जहाज़ चलने वाला था, जब उसे रोका गया और फैसल को गिरफ्तार किया गया। भारत को इस से सीख लेनी चाहिए।
फैसल भाई ने पिछले वर्ष ही अमरीकी नागरिकता की शपथ ली थी। उससे पहले अमरीका में ही बी.एस. और एम.बी.ए. किया था — यानी पढ़ा लिखा था। उस ने अपनी ओर से काफी सतर्कता से काम लिया था। सस्ती सेकंड हैंड गाड़ी दो हफ्ते पहले खरीदी थी। जिससे खरीदी थी, उससे इंटरनेट द्वारा संपर्क किया था, किसी मॉल के पार्किंग लॉट में मुलाकात की थी, और नकदी दे कर गाड़ी ली थी। गाड़ी का उस के नाम से संबन्ध न जुड़े, इस लिए उसे अपने नाम रजिस्टर नहीं कराया था। उस पर किसी और गाड़ी के नंबर प्लेट लगा लिए थे। गाड़ी के सामने के शीशे के अन्दर गाड़ी का VIN (Vehicle Identification Number) खुदा रहता है, जिसके साथ छेड़छाड़ करना गैरकानूनी होता है। गाड़ी का मालिक कोई बने, नंबर कोई लगे, पर VIN से गाड़ी की मूल पहचान बनी रहती है। इस गाड़ी में VIN को मिटा दिया गया था।
फैसल को शायद यह मालूम नहीं था (मुझे भी आज ही मालूम हुआ), कि गाड़ी के निचले हिस्से में भी इंजन पर VIN खुदा रहता है। पुलिस ने उस से गाड़ी के पिछले मालिक का पता खोजा। उस ने फैसल के साथ गाड़ी के विषय में जो ईमेल किये थे, उससे फैसल के विषय में कुछ पता चला। अन्त में फैसल के नागरिकता संबन्धी कागज़ों से उस का चित्र लेकर गाड़ी के मालिक को दिखाया गया, जिससे उसने फैसल की पहचान की। फैसल को फटाफट नो-फ्लाई लिस्ट पर डाला गया, पर जब तक वह जहाज़ में बैठा तब तक एयरलाइन के कंप्यूटर में नई लिस्ट आई नहीं थी। पर इस से पहले कि जहाज़ उड़ता, यात्रियों की सूची अधिकारियों के पास पहुँची और जहाज़ को उड़ने से रोका गया। इस पूरे मरहले में अधिकारियों की सतर्कता का तो हाथ था ही, किस्मत ने भी अधिकारियों का खासा साथ दिया लगता है। वरना एक बार शहज़ाद साहब कराची पहुँच जाते तो अल्लाह हाफिज़।
प्रश्न यह उठता है कि पाकिस्तान में ऐसा क्या है कि पूरे विश्व को आतंकवाद निर्यातित करने की उन्होंने फैक्ट्री लगा रखी है? माना कि उन्हें अमरीकी नीतियों से इख्तिलाफ है, पर इस तरह मासूमों की भीड़ पर हमला करना, यह क्या किसी किताब में लिखा है? शायद वे सोचते हैं कि जो भी मरेंगे, उन में से अधिकतर काफिर होंगे और वे इस तरह खुदा का ही काम कर रहे हैं। हैरानी इस बात की है कि कई बार ये लोग पढ़े लिखे नौजवान होते हैं। कितनी नफरत चाहिए इतनी शिक्षा को शून्य करने के लिए। (ऊपर दिया गया चित्र सी.एन.एन. डॉट कॉम से लिया गया है और लगता है फैसल के औरकुट खाते से है।)
इस घटना का सीधा परिणाम यह होगा कि पाकिस्तानियों को अमरीका का वीज़ा मिलने में और दिक्कतें आएँगी। एयरपोर्टों पर अधिक छानबीन का सामना करना पड़ेगा। इंटरनेट पर पाकिस्तानी लोग इन बातों का रोना रो रहे हैं। पर यह कोई नहीं कहता कि इसका ज़िम्मेदार कौन है — सभी लोग एयरपोर्ट वालों पर, अमरीकियों पर, नस्लभेद का इलज़ाम लगाते हैं, पर यह कोई नहीं कहता कि इस का मूल कारण इस तरह के आतंकी हैं। जितना ऐसा आतंकी पढ़ा लिखा हो, भोली सूरत वाला हो, उतना ही नस्ल आधारित खोजबीन का शिकंजा बड़ा होता जाता है। मेरा पड़ौसी यदि यह मेरे बारे में सोचे कि पड़ौस के इस दक्षिण ऐशियाई बन्दे से सावधान रहना चाहिए तो मैं उसे दोष नही देता। दोष देता हूँ हम जैसे दिखने वाले ऐसे पाकिस्तानियों को जिन्होंने पाकी को एक नापाक शब्द बना दिया है।
ऐसे मौकों पर मुझे फिर सुदर्शन की लिखी कहानी हार की जीत याद आती है। यदि आजकल का बाबा भारती दीन-दुखी-अन्धे को देख कर मुख मोड़ता है या उन पर विश्वास नहीं करता तो इस में गलती बाबा भारती की है या खड़ग सिंह की?
आज हफिंगटन पोस्ट में पिछले नवंबर में हुए पाकिस्तान फैशन वीक से यह तस्वीर छपी है। पोस्ट नें लेख का शीर्षक दिया है “वाट द….?”। सच है, तस्वीर अपनी कहानी खुद कहती है, शब्दों की अधिक आवश्यकता नहीं है। मेरा बस यह कहना है… यह फैशन वीक है, या फैशन वीक है?
छाता लेकर निकले हम
फरवरी में भारत यात्रा के दौरान कार्यक्रम बना श्रीलंका घूमने का। श्रीलंका भ्रमण का अनुभव बहुत ही बढ़िया रहा। विस्तार से जल्दी लिखूँगा, फिल्हाल यह लघु-चित्र-प्रविष्टि। वहाँ, छाते का एक अनूठा प्रयोग देखने को मिला। अक्सर प्रेमी युगल छाता साथ लेकर चलते हैं — अकस्मात वर्षा हो जाए, उसमें तो काम आ ही जाएगा, पर न भी हो तो आप कहीं भी अपना निजी प्रणय-कक्ष बना सकते हैं। गाल अन्तर्राष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम के पास खींचे गए यह दो चित्र देखिए।